“दो फुल्के लंच में ले जाते”…

Sunita Bakshi

रुआंसे सा चेहरा बना कर पाटिल साहब कुर्सी पर बैठ कर कब से नाश्ता आने का वेट कर रहे हैं,पेट भूख से तिलमिला रहा था,दिन के ग्यारह बजने को आए ।

मंजरी बहु सुबह से काम में बिजी रहती ,दोनों बच्चों को स्कूल भेजना,उनके पसंद के टिफिन बना कर देना,पानी का बॉटल ,बैग सब दुरुस्त करते ही रहती कि स्कूल बस का हॉर्न सुनाई देता । फटाफट बस तक बच्चों को पहुंचाती।फिर रोहन के ऑफिस जाने का समय ।
तौलिया से ले कर निकर बनियान ,कपड़े सब देना पड़ता मंजरी को!!आज कल डाइट वाले खाने पर जोर दे रहा है रोहन ,वजन जो बढ़ रहा था उसका, शर्ट में बटन लगाने के बाद भी सब जगह से पेट झलकता रहता है,शर्ट का साइज सही जगह पर लाने के लिए प्रॉपर एक्सरसाइज शुरू की है ,तो खाना भी कम तेल मसाले वाला खाता है। ब्रोकली, गाजर ,बींस की स्टीम की हुई सब्जी और दो फुल्के अक्सर उसके टिफिन में रहते,ब्रेकफास्ट में कभी दलिया कभी ओट्स,खा कर जाता।रोहन के ऑफिस जाने के बाद थोड़ी शांति मिलती मंजरी को,चाय का कप ले कर बैठती  आराम से चाय पीती,बाबूजी के नाश्ते का कोई टाइम नही होता,दस ग्यारह बज ही जाता सब का काम खत्म करने के बाद बाबूजी का ध्यान आता मंजरी को।पाटिल साहब को सब बर्दाश्त होता,मगर उन्हें भूख शुरू से बर्दाश्त नहीं होती।

आखिर उन्होंने बहु को आवाज लगा दी,”मंजरी बेटा, क्या हुआ अब तक नाश्ता नहीं बना,मेरी दवाइयों का टाइम हो रहा है और बहुत जोर की भूख भी लगी है” ।

अभी लाई बाबूजी…
मंजरी ने नाश्ता ला कर बाबूजी के सामने टेबल पर रख दिया।वही कल वाली फ्रिज में रखी सब्जी गरम की हुई और दो फुल्के।मंजरी को नाश्ता लाते हुए प्लेट को बड़ी उम्मीद से पाटिल साहब देख रहे होते हैं,पता नहीं बहु क्या ला रही होगी और उनका मुंह बिना निवाले का ही चलने लगता ,जैसे ही प्लेट को देखा उनका मन बुझ गया
ये क्या बहु?? कल वाली सब्जी!
हां तो…आपने तो बड़े चाव से कल खाया था !आज क्या दिक्कत है, खाइए…
पाटिल साहब किचन जाती हुई बहु को देख रहे थे,भूख लगी थी सो चुपचाप बेचारे खाने लगे।
फुल्के तोड़ते हुए पुरानी यादों में खो गए पाटिल साहब।
सुबह की शानदार चाय सुधा के साथ बैठ कर पीने के बाद ,गमले की गुड़ाई,पानी ,खाद पौधों में देने के बाद नहाने चले जाते ,आधे घंटे उन्हें पूजा में लगता था फिर नाश्ता कर के ऑफिस निकलते,वैसे अब महीने दो  महीने ही रिटायरमेंट में बची थी।पाटिल साहब पूजा करते रहते मन लगा कर, अक्सर नाक में रसोई में बनती हुई व्यंजन की  महक आ जाती और वहीं से अंदाजा कर लेते की आज सुधा क्या बना रही है!!
दो सब्जियां सुधा सुबह बनाती ,एक सूखी एक तरी वाली।सूखी उनके टिफिन में जाती और तरी वाली से नाश्ता होता ।टेबल पर बैठते ही गरमागरम शुद्ध देशी घी के परांठे पाटिल साहब के प्लेट में एक एक कर सुधा देती ,दो परांठे खाते, दो फुल्के लंच में ले जाते !

दही उनका डेली के खाने में शामिल था।लंच में चार खाने वाले डिब्बे में फल भी रहता।
“तेरे हाथ में जादू है सुधा ,कोई तेरे जैसा खाना नहीं बना सकता”!!

आप भी बस कुछ भी बोलते रहते हैं ,हम सभी पत्नियों के पति ऐसे ही बोलते हैं…सुधा मुस्कुरा कर बोलती। होठों पर सदा मुस्कान रहता सुधा का,उसका खुद का मानना था घर की गृहिणी को मुंह लटका कर नहीं रहना चाहिए, सो हर समय खुश रहती,परेशानियों का निपटारा अंदर अंदर करती रहती ,जिंदगी है तो उलझने हैं,बस जरूरत होती है परेशानियों को कुशलता से किनारे लगाने की,जो आम गृहिणियों की खासियत भी होती है।

अच्छे से तय समय पर रिटायरमेंट हो गई,पाटिल साहब की।एक नए तरीके से जिंदगी ने फिर रहने के तौर तरीके सिखाए,पति– पत्नी दोनों अब साथ–साथ अधिक समय गुजारते,फोन से रिश्तेदारों से गप करके खूब खुश होते अकसर दोनों घूमते फिरते नजर आते ,पाटिल साहब जिंदादिल टाइप के इंसान हैं।समय का पहिया चल रहा था आसानी से।एक दिन, पाटिल साहब सब्जी  फल लाने गए हुए थे,उनके दोनों हाथों में थैले भरे हुए थे,लौकी, पालक ,मूली, तोरई, गाजर,बींस सब ताज़ी सब्जियों के अनेक प्रकार के साथ ,नींबू हरी मिर्च जरूर होती।थोड़े फल भी लाते जरूर।अभी घर के दरवाजे तक पहुंचे ही थे वापिस बाजार से की लोगों की भीड़ दिखी फ्लैट के बाहर,उनके पड़ोसी लोग लाचार खड़े दिखे,महिलाएं अंदर थी ।क्या हुआ? दहशत हो आई उनको ,एकदम से डर गए ।
अपने सामने अपनी काम वाली बाई गीता से पूछा..

गीता रो पड़ी , हक्के बक्के दौड़ कर बेड रूम में गए तो देखा बेड पर सुधा निर्जीव सी पड़ी दिख रही है। उन्होंने दौड़ कर सुधा का हाथ पकड़ा,बिलकुल बर्फ की तरह ठंडा ,एकदम से बेचैन हो उठे ,गले में लगा जैसे कुछ जकड़ गया ,आवाज ही नही निकली।हमेशा की तरह फोन घर पर भूल गए थे पाटिल साहब, उनके मित्रों ने फोन भी किया था ,रिंग होने पर पता चला घर में ही टेबल पर फोन पड़ा हुआ था।

“गीता जब तक तुम झाड़ू पोंछा लगाएगी मैं नहा कर आती हूं,पाटिल साहब आयेंगे तो दरवाजा खोल देना,अपनी बरसों पुरानी ईमानदार कामवाली को नसीहत दे कर सुधा बाथरूम की तरफ मुड़ी ,कपड़ों को बाथरूम में स्टैंड पर रखा,

बाल्टी में पानी के लिए नल खोल ही रही थी कि पैर फिसला सुधा का और चारों खाने चित गिर पड़ी, नल से सिर जा टकराई थी,कुछ गिरने का आवाज सुन कर पोंछा छोड़ कर गीता दौड़ कर आई चिल्लाने लगी मैडम को ऐसे गिरे हुए देख कर, उठाने की बहुत कोशिश की जब उठाने में वो नाकामयाब हुई तो फ्लोर पर के सारे पड़ोसियों के बेल बजा दी,सारे लोग मिनटों में दौड़ कर आए ,किसी तरह से कुछ लोगों ने सुधा को उठा कर बेड पर सुलाया,ऊपर के फ्लोर में डॉक्टर रहते हैं,उन्हें फोन कर बुलाया।आते ही देख कर डॉक्टर ने चेक करने के बाद कहा , नो मोर ….सिर में गंभीर चोट मौत का कारण बना, हाई बीपी की मरीज भी थी,अब मौत चक्कर आने से हुआ या फिर पैर फिसलने के बाद गिरने से,बाथरूम भी गीला था।

सब लोग आपस में सुधा के व्यहार कुशल होने का चर्चा करने लगे,सबसे हंस कर मिलती थी सुधा, कम बोलती थी, शुरू से मितभाषी थी।व्यक्ति के रहते उसके सामने उसकी बड़ाई करनी चाहिए,उसके जाने के बाद नहीं,मतलब नहीं रहने पर तो सब तारीफों के पुल बांधते हैं ।
रिश्तेदार भी आ गए शाम होते– होते ,बेटा– बहु, पोते– पोती सब आ गए।घटना अचानक हो गई,और सब बिखर गया। पंद्रह दिन होने को आया सारा कार्यक्रम खत्म हो गया था सुधा से संबंधित।रिश्तेदार भी लौट गए, कुछ दिनों के बाद रोहन को अब अपने काम पर लौटने का समय भी आ गया था,बच्चों की स्कूल छूट रही थी सो अलग ,बड़ी मुश्किल से  पापा साथ चलने को तैयार हुए। यहां आकर जिंदगी जीने के तरीके ही बदल गए पाटिल साहब एकदम अकेले पड़ गए थे,सबों की अपनी व्यस्तता थी,कोई साथ था तो बस सुधा की यादें।दिन महीने साल गुजरते चले गए, दस साल होने को आया रोहन के घर रहते हुए ,रिश्तों के मायने भी बदलने लगे थे अब, अपने आप को बोझ समझते सब के ऊपर सतर साल के उम्र में ही  पाटिल साहब ,अस्सी के लगने लगे थे।बेटा भी कुछ बातें अनसुना कर जाता,उनको बेहद तकलीफ होती,ऑफिस के बहुत टेंशन रहता रोहन को अपने बच्चों तक को समय नहीं दे पता था,बेटे की हालत पाटिल साहब समझते भी थे , और कोई उपाय नहीं था,अब अकेले रहने की हिम्मत भी नहीं बची थी उनकी,कभी कभी गुस्से में बहु कह जाती गांव जा कर रहिए,हमसे अब आपका देखभाल नहीं हो पाएगा।

अपने स्वाभिमान को चूर होते देख पाटिल साहब अपने कमरे में लौट आते।
पति– पत्नी में कोई एक पहले चले जाने से दूसरा अकेला रह जाता है तो जीवन अकेले गुजारना बहुत मुश्किल हो जाता है।औरतें फिर भी कष्ट झेल लेती हैं,पुरुष बहुत अकेला पड़ जाता है, औरतें अपनों के पास रो कर जी हल्का कर लेती हैं लेकिन पुरुष ऐसा नहीं कर पाते।
हमें अपने अकेले पड़े माता या पिता, या परिवार में कोई भी सदस्य के साथ अगर ये घटना हो जाती है तो हमें उनका पूरा ध्यान रखना चाहिए।कुछ जरूरतें ,झिझक बस ऐसे सदस्य कह नहीं पाते हैं हम सबों से ,तो हमें,उनके खाने, पहनने,घूमने,मिलने– जुलने, की हर इच्छा को तवज्जो देनी चाहिए।ईश्वर की इच्छा परम है,जब तक सांस है तब तक आस है। इसलिए निराश नहीं होना चाहिए। “जेहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए”।ईश्वर निर्विकार हैं उनकी शरण में आकर बहुत शांति मिलती है,थोड़ा समय अपने मन को एकाग्र कर प्रभु के श्री चरणों में समर्पित करना चाहिए।समय एक सा नहीं रहता है,हमें वक्त के साथ ताल मेल बना कर चलना ही पड़ता है,उसी में समझदारी भी है।
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आपकी सखी
Sunita Bakshi..

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