smita singh Chauhan
“मैं घर का सारा काम कर लूंगी लेकिन उस कमरे में नहीं जाऊंगी।” श्रुति ने आयुष को गुस्से से भरी आवाज़ में कहा।
“क्या यार श्रुति? क्यों ज़िद लिए बैठी हो। मुझे पता है तुम ये सब क्यों कर रही हो? माँ बूढ़ी है पापा को कोरोना हो गया है ऐसे में तुम ख्याल नहीं रखोगी तो कौन रखेगा? मैं जॉब करू या ये सब….।” आयुष ने श्रुति को अपनी स्थिति का बोध कराते हुए कहा।
“लेकिन मैं तो लापरवाह हूँ तो तुम कैसे मुझे ये सब करने की कह सकते हो? नहीं बाबा कही बच्चों को या किसी को कुछ हो गया तो?” श्रुति ने अपने हाव भाव में एक तल्खी को व्यक्त करते हुए कहा।
“यार श्रुति हो गया ना तुम भी बातों को लेकर बैठ जाती हो। हो गयी गलती माँ {श्रुति की माँ }के जाने का मुझे भी उतना ही गम है जितना तुम्हे। लेकिन मैंने जो भी कहा उस वक्त के हालात देखते हुए कहा।” आयुष ने अपना पक्ष रखते हुए कहा।
“अच्छा हालात तो आज भी वही है। मेरी माँ को जब बीमारी हुई और मैंने उनके पास जाने की बात की तब तो सारा घर मेरे ऊपर ऐसे बरसा जैसे वो बात कहकर मैंने गुनाह कर दिया हो। उनका तो कोई भी नहीं था मेरे सिवा तब तुम्ही थे ना जिसने बोला था की अब तुम बेकार की ज़िद मत करो तुम जाओगी माँ के पास इस हालात में कही तुम्हें इन्फेक्शन हो गया तो तुम वैसे भी लापरवाह हो। कही सही ढंग से एहतियात नहीं रख पायी तो हमारा परिवार भी टेंशन में आ जायेगा। तो अब भी तो बात वही है अब तो घर पर ही हो गया। अब अगर मैं दिन भर में कमरे में आने जाने में इन्फेक्ट हो गयी तो क्या करेंगे? एहतियात रखने में लापरवाही तो आज भी हो सकती है मुझसे।अचानक जिममेदार लगने लगी तुमहे।” श्रुति ने अपने मन की कड़वाहट को शब्दों में पिरोकर बाहर निकाला।
“यार तो अब क्या इस बात का बदला लोगी? यहाँ से फ़ोन करके माँ को अच्छे हॉस्पिटल में शिफ्ट कराया। रोज़ डॉक्टर से उनका हाल चाल पूछता रहा अब ठीक है हमारी बदकिस्मती है की वो नहीं रही। लेकिन मैं तो तैयार था, उनके पार्थिव शरीर को अस्पताल से वहा तुम्हारे साथ जाकर लेने के लिए लेकिन तुमने ही फ़ोन पर अस्पताल को उनका अंतिम संस्कार करने की परमिशन दे दी तो हम क्या कर सकते थे?” आयुष ने श्रुति को अभी १ महीने पहले की बातो को याद दिलाते हुए कहा।
“तुम ना ये सब बोलकर अपने गलत को सही मत करो। हां मैंने कहा था क्युकी मेरी माँ १५ दिन उस बीमारी से अकेले घर पर जूझती रही।कैसे खाना बनाती होगी? कैसे दवा लेती होगी? कैसे किया होगा उनहोंने।मेरे बार बार कहने पर भी आपने मुझे नहीं भेजा। तो उस निस्तेज शरीर के आगे हम क्या अपनेपन का ढोंग करने जाते? जिसके जीते जी हम कुछ नहीं कर पाए। शायद तुम मुझे भेज देते तो उनके अस्पताल जाने की नौबत नहीं आती। मैं उस दौरान उनका ख्याल रख सकती थी लेकिन नहीं हम औरतो के माँ बाप और उनसे जुडी भावनाये तो एक पुरुष के साथ फेरे लेने से ही ख़त्म हो जाती है। हमारा तो धर्म ही उसके बाद ससुराल के अलावा कुछ नहीं बचता। हद है बीमारी में भी हम हमारे घरवाले और बीवी के घरवाले का फर्क जानते है और अपने को इंसान होने का दावा करते है।” श्रुति ने आँखों में आंसू भर आये।
“श्रुति देखो तुम बात को आगे बड़ा रही हो। मेरे माँ बाप क्या तुम्हारे माँ बाप नहीं कम से कम ऐसे वक्त में तो ये सब बातें मत लाओ।” आयुष ने श्रुति को पुरुषगर्भित आवाज़ में समझने की कोशिश की।
“और मेरी माँ तुम्हारी नहीं थी। आज पापाजी को भी तो वही हुआ है तो आप इतना क्यों उम्मीद किये बैठे हो मुझसे? मैं सारा काम देख लूंगी लेकिन इस बीमारी के दौरान उनकी देखभाल का ज़िम्मा आपको ही लेना पड़ेगा। सॉरी अगर आपको मेरा व्यवहार अचछा ना लग रहा हो तो। “कहकर श्रुति वह से अपने कमरे की तरफ जाने लगी तभी आयुष ने दंभ भरी आवाज़ में कहा “ठीक है लेकिन याद रखना तुम ये सही नहीं कर रही हो। मैं तुम्हारा व्यवहार ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाऊंगा। शायद इसका असर हमारे रिश्ते के लिए सही नहीं हो।”
“बिलकुल मत भूलना आयुष। मैं भी कहा भूल पायी? हमारे रिश्ते में असर तो १ महीने पहले ही आ गया था जब मेरी माँ मरी थी? उस उदास सुबह मैने भावनाओ से खाली होते हुए अपने मन को तभी मह्सूस कर लिया था।शायद तुम्हे आज महसूस हुआ हो। क्युकी मेरी तकलीफ कभी तुम्हारी थी ही नहीं हां तुम्हरे घर की सारी तकलीफ सिर्फ मेरी थी। भगवान पापाजी को जल्द ठीक कर दे क्युकी अपनों को खोने का गम हर तकलीफ से ज्यादा भारी होता है।” श्रुति के यह कहते ही आयुष कमरे का दरवाज़ा पटकते हुए बाहर निकलगया। आयुष ने अपने ऑफिस से छुटी ले ली ताकि वो पिताजी की देखभाल कर सके लेकिन दो दिन में ही उसकी हिम्मत जवाब देने लगी। श्रुति घर पर सारा काम करने के बाद भी ससुरजी के खाने पीने से लेकर दवा तक टाइम पर आयुष के हाथ पर रखती थी। लेकिन कमरे में ना जाने की उसके मन में एक ज़िद हावी थी शायद वह अपनी माँ के इस तरह जाने से ज़्यादा प्रभावित थी। आयुष को कमरे में बार बार आना जाना ही बहुत भारी काम लगने लगा उसने उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट करवा दिया। कुछ दिनों बाद आयुष के पिता स्वस्थ्य होकर घर वापस आ गए। श्रुति इस बात से बेहद खुश थी,लेकिन आयुष पिछले दस दिनों में काफी बदल गया था। पिताजी को घर में वापस लाने के बाद वह श्रुति से आज दस दिन बाद उसे गले लगाते हुए आज उससे बोला “सॉरी श्रुति में इन १० दिनों में पापा के हॉस्पिटल जाने से ही हिल गया। मुझ से वाकई बहुत बड़ी गलती हो गयी मम्मी पापा की छोड़ो उस वक्त मैंने तुम्हारा साथ देना चाहिए था। तुमने कैसे वह वक्त निकाला होगा? अब मैं समझ सकता हूँ। में २ दिन में ही पापा के कमरे में आना जाना नहीं कर पाया तुमने अपनी माँ की बीमारी में भी दिमागी तौर पर परेशान होते हुए भी हम सबको कभी अहसास ही नहीं होने दिया की तुम्हारे मन पर क्या बीत रहा होगा? तुम सही कह रही थी की अपनों को खोने का गम हर तकलीफ पर भारी होता है। में बहुत शर्मिंदा हूँ मुझे माफ़ कर दो।आयुष की घबराहट को श्रुति महसूस तो कर पा रही थी लेकिन उसका अंतर्मन आयुष को माफ़ी देने को राज़ी नहीं था।
“अच्छा हटो चाय देके आती हूँ पापाजी को आप भी थोड़ा आराम कर लो।” कहते हुए श्रुति ससुरजी के कमरे की तरफ चली गयी आयुष उसे शुन्य में निहार रहा था जैसे उसे श्रुति से अब कोई शिकायत ही ना हो।
दोस्तों हमारे समाज का ताना बाना एक औरत के लिए ऐसे बनाया गया है की शादी के उपरांत उसे अपने माँ बाप के घर जाने के लिए या उनकी सेवा के लिए भी पति या ससुरालवालों की रज़ामंदी की आवश्यकता होती है। सोने पर सुहागा वह सोच बन जाती है जहा पर अपनी सुविधानुसार वह कभी ज़िम्मेदार बहु और कभी लापरवाह की श्रेणी में रख दी जाती है जैसे श्रुति के साथ हुआ। जब बात उसके मायके में उसकी ज़रुरत की थी तब वह लापरवाह हो गयी और जब ससुराल में उसकी जरूरत पड़ी तो उसी लापरवाह में ज़िम्मेदार बहु और पत्नी नज़र आने लगी। आयुष जैसे व्यक्ति हमें हर घर में मौजूद मिलेगे लेकिन कभी कभी श्रुति जैसे बनने में भी कोई हर्ज़ नहीं है क्यूंकि यही समाज हमें यह भी तो सिखाता है की “प्यार और विश्वास वहा पर खर्च करों जहां उसकी क़द्र हो।” क्या आप इस राय से इक्तफाक रखते है अवश्य बताये।
आपकी दोस्त
स्मिता सिंह चौहान।