अर्चना के. शंकर
“बहू कुछ नाश्ता दे दो आज नाश्ता नहीं मिला! “
कमरें में दोपहर बारह बजे सो रही बहू को ससुर जी ने आवाज लगाई। अंदर से कर्कश सी आवाज आई..
“मेरी तबीयत ख़राब है बाबू जी मुझसे कुछ ना कहिये जाइए किसी और से कहिये!”
कहकर बहू संध्या सो गई बिना देखे कि उस बुजुर्ग ने सुबह से कुछ नहीं खाया, कैलाश जी की आंखों से आँसू छलक आयें जाने कितनी यादों को याद कर उनकी सूख गई आँखों में आँसू का पर्दा सा आ गया।
जाकर पोती से बोले नेहा बिटिया नाश्ता दे दे कुछ, तेरी माँ बीमार है शायद! “
नेहा को माँ ने ही तो संस्कार दिए थे तो वो माँ से अलग कहा थी बिना हिचके बैग उठाती हुई बोली..
“दादा जी मुझसे कुछ ना कहिये मेरे क्लास का समय हो गया, मैं तो चली!”
पोती की बात सुन सन्न खड़े रह गए कैलाश जी और नेहा चली गई, वो बैठ गए अपने चौकी पर,जब से गांव छोड़ इस घर में आए कभी अपनापन ना मिला, गाँव में जैसी सारी खुशी का पोटली छोड़ आए, बड़े चाव से गांव से शहर आए थे कैलाश जी बेटे का घर बन गया बेटा बहू के साथ रहूँगा! कहते हुए अपने दोस्त मित्रों से विदा ली थी कैलाश जी ने, लेकिन ये दिन देखना होगा ये कभी नहीं सोचा था।
अपने आप को संयत कर उठे और मुहल्ले के दूसरे गली में रहती थीं उनकी बेटी अन्नपूर्णा। जेठ के तेज़ चिलचिलाती धूप में तेज़ कदमों से चलते हुए पहुंचे बेटी के दरवाज़े पर दस्तक दी, लेकिन दुख का ऐसा भाव आ रहा था कि जी हो रहा था कि दरवाज़ा खोलने से पहले ही चले जाएं.. कैसे बेटी से रोटी मांगूंगा, कैसे कहूँगा कि मैं भूखा हूँ!
सोचते हुए वापस मुड़ ही रहे थे कि बेटी ने दरवाज़ा खोला पिता को इस समय देख वो हैरान थी..
बाबू जी आप! आइए ना लेकिन इतनी धूप में आप क्यों निकले बाहर! आइए बैठिए तो यहां कहते हुए जल्दी से पंखा और कूलर चला दिया और भाग कर पानी का गिलास ले आई..
“पानी नहीं बिटिया दो रोटी खिला दें!”
कहते हुए सर झुका गया कैलाश जी का आंखों में आँसू आ गए, अन्नपूर्णा भाग कर रसोई गई दो रोटी, दाल सब्जी थाली में डाला और भाग कर ले आई, उस पल में कुछ सोचने समझने की ताकत खो दी थी जैसे अन्नपूर्णा ने पिता के सामने थाली रख दी और बैठ गई वहीं पास।
कुछ मिनट में ही दो रोटी साफ हो गई खाकर तृप्त हुए तो बेटी ने डरते डरते पूछा..
“बाबूजी क्या हुआ भाभी घर में नहीं थी क्या? आप ऐसे! “
पिता ने बेटी के आँखों में झांका फिर कह दी आपने मन की व्यथा जिसे सुनकर अन्नपूर्णा सन्न रह गई आंखों से आँसू बह चले..
ये वही पिता हैं जिनके उगाये अनाज और सब्जी से बड़े संयुक्त परिवार का पेट भरते बाकी बचे अनाज और सब्जियों से गाँव के गरीब गुरबो का पेट भरता था आज वही पिता दो रोटी के लिए तपती दोपहिया में पैदल चले आएं और हद तब हुई जब देखा कि पिता बिना चप्पल के आये थे, उस दुख और विषाद के अपने शरीर का जलते पैर का भी ध्यान ना रहा!
अभी पिता के साथ बैठी थी कि राकेश आए, सारी बात सुन राकेश ने कैलाश जी से वादा लिया..
बाबू जी! क्या मैं आपका बेटा नहीं हूँ आज के बाद कल से रोज सुबह नाश्ते के समय आप यहां आयेंगे! बेटी के घर का नहीं खा सकते लेकिन बेटे के घर तो खा सकते हैं!
कैलाश जी के आँखों से आँसू बह चले राकेश ने उनका हाथ थाम लिया
बाबु जी आप किसी बात का दुख ना करे बेटी है यही आपकी और सब कहते हैं ना कि बेटियाँ बड़ी होकर माँ बन जाती हैं तो चलिए देखते हैं कि आपकी बेटी मातृत्व के दायित्व का निर्वाह कर पाती है या नहीं! “
कहते हुए राकेश हा हा हा करके हँसने लगे और उनकी हँसी सुन कैलाश जी भी मुस्करा उठे राकेश के सिर पर स्नेहिल हाथ रख उठें और चले गए।
दूसरे दिन बाबूजी आए ठीक नाश्ते के समय अन्नपूर्णा देख खुश हो गई बाबूजी का हाथ थाम डायनिंग टेबल पर बिठाया तो देखा बाबूजी ने सफ़ेद गमछे में छोटी सी गठरी पकड़ी थी उसे देख अन्नपूर्णा ने कहा..
बाबूजी क्या है गमछी में? लाइये रख दूँ आप नाश्ता कर लीजिए!
कैलाश जी ने वो गठरी खोल दी बेटी के सामने ढेर सारे फूल थे..
“ले बिटिया रख दे पूजा की टोकरी में दामाद जी के पूजा के लिए फूल चाहिए होते हैं ना अब रोज मैं फूल ले आऊंगा!”
अन्नपूर्णा ने फूल ले लिया और आज अपने पिता कमजोर नहीं लगे अलबत्ता और मजबूत लगे ठीक वैसे ही जैसे पहले वो सबका पोषण करते थे, आज ईश्वर के लिए फूल लेकर आए इससे बड़ा और क्या हो सकता था, उन्होंने तो एक पिता के भावों को भी सहेजा था कि बेटी के घर खाली हाथ नहीं जाना।
उनके लाएं फूलों से आज ईश्वर की पूजा कर राकेश भी खुश हो गए ऐसी दिव्य अनुभूति उन्हें कभी हुई ही नहीं थी, बस फिर क्या था अब रोज बाबु जी ठीक नाश्ते के समय फूल लेकर हाजिर हो जाते और अन्नपूर्णा उन्हें भर पेट नाश्ता करा कर तृप्त पिता को देख बेटी के होने का कर्तव्य निभा कर खुश थी।
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अर्चना के. शंकर (अर्चना पाण्डेय)
बहु और सास के बीच खूबसूरत और भावुक रिश्ते को दर्शाती कहानी.. बहुओं को गर्म पकौड़े मिलने से रहे!
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