Seema Rastogi
“क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा है? ऐसा करती हूं कि चौपाल में ही सबके सामने अपनी समस्या रखूंगी, शायद कोई समाधान मिल जाए” मनोरमा खुद मन ही मन बुदबुदा रही थी
“आज कितने दिन हो गए, बेटे से रूपए-पैसों के लिए कहते-कहते, लेकिन लगता है कि ध्यान ही नहीं देता जैसे मेरी बात पर”
आंखों में आंसूं भरकर मनोरमा याद करने लगी अपने जीवन के बारे में….
हंसता-मुस्कराता परिवार, पति-पत्नी और एक बेटा, एक बेटा होने के बाद दूसरा बच्चा हुआ ही नहीं, उसी से मन में संतोष कर लिया, “कम से कम एक बेटा तो है जो मेरे बुढ़ापे की लाठी बनेगा, किसी-किसी को तो भगवान एक भी बच्चा नहीं देते”
रघुनाथ बड़ी कोठी में माली-गिरी करते और मनोरमा खाना बना दिया करती, मकान अपना निजी था, बस तमन्ना एक ही कि नकुल को पढ़ा-लिखाकर बड़ा अफसर बनाना है और नकुल था भी पढ़ाई-लिखाई में बहुत होशियार, रघुनाथ और मनोरमा अपने सुख-सुविधाओं को त्याग देते, लेकिन नकुल के लिए किसी तरह की कमी नहीं होने देते!
समय का चक्र ऐसा घूमा कि उन लोगों की इच्छानुसार नकुल सचमुच बड़ा अफसर बन गया, अब तो उन लोगों की खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहा, पांव तो जैसे धरती पर ही ना पड़ें।
नकुल नौकरी करने के लिए बहुत बड़े शहर चला गया और अब तो नकुल के लिए रिश्तों की जैसे लाइन लग गई, रघुनाथ और मनोरमा नकुल के ऊपर शादी का दबाव बनाने लगे, लेकिन नकुल यही कहता “मां अभी जल्दी किस बात की है, थोड़े दिन रूक जाइए, थोड़ा रूपया-पैसा अच्छी तरह से कमा लूं, फिर शादी भी हो जाएगी”
नकुल थोड़े-बहुत रूपए घर भी भेज देता, लेकिन मनोरमा यही कहती कि जब हमको जरूरत होगी हम खुद ही बता देंगे, अभी तुम अपनी जिम्मेदारी उठाओ और जब शादी होगी, तो बहुत रूपयों की जरूरत पड़ेगी”
“मां मैंने शादी कर ली” एकदम से जैसे धमाका हो गया
“क्या कहा तूने, शादी कर ली?
“हां मां, ठीक सुना आपने, मैंने अपने साथ काम करने वाली गौरी से शादी कर ली”
मनोरमा के तो जैसे हाथ-पांव ही फूल गए “कितना अरमान था इकलौते बेटे की शादी का, सब चकनाचूर हो गए”
दोनों पति-पत्नी रोकर रह गए!
“ठीक है बेटा, कम से कम बहु को लेकर ही आ जाओ”
“वो कहां गांव में रह पाएगी! नकुल ने खुद ही आने-जाने का रास्ता बंद कर दिया
दोनों पति-पत्नी नकुल की याद में तड़फते रहते, लेकिन नकुल को कोई फर्क नहीं पड़ता।
रघुनाथ के तो ऐसा सदमा लगा कि उन्होंने चारपाई पकड़ ली और मनोरमा भी अंदर तक टूट गई “जिसके लिए पूरा जीवन दांव पर लगा दिया, उसने तो सारे अरमान मिट्टी में मिला दिए”
बढ़ती उम्र के साथ अब काम-धाम सधता नहीं, अब समस्या आई जीवन-यापन की, तो मनोरमा ने अपने लिए एक कमरा छोड़कर दो कमरे किराए पर उठा दिए, खर्चा-पानी ठीक-ठाक चलने लगा, क्योंकि वैसे भी गांव में ज्यादा मंहगाई नहीं होती।
लेकिन लॉकडाउन में स्कूल हो गए बंद और जो मास्टर किराए पर रहते थे, मकान खाली करके चले गए,अब तो खाने-पीने के भी लाले पड़ने लगे..
“बेटा नकुल ऐसा है थोड़े रूपए भेज दो, आजकल बहुत दिक्कत हो गई है” बहुत हिम्मत करके मनोरमा ने नकुल से फोन पर कहा
“हां-हां देखता हूं” नकुल ने गोल-मोल जवाब दिया
दो-चार दिन देखा मनोरमा ने फिर से नकुल को फोन किया।
“मां हम लोग खुद अपना खर्चा अच्छी तरह से नहीं चला पा रहें हैं, बड़े शहरों के खर्चे भी बड़े-बड़े होते हैं” नकुल ने टका सा जवाब दे दिया और अब मनोरमा ने ठान लिया कि “बेटे के आगे हाथ नहीं फैलाऊंगीं”
शाम को चौपाल में अपनी समस्या को रखने का विचार बनाया।
पहले तो सबको अपनी समस्या बताई, फिर बोली “मैं अपना घर बेचना चाहती हूं”
“ये क्या कह रहीं हैं आप, घर बेच देंगी तो रहेंगी कहां? सब एक साथ बोल पड़े
“मुझे घर की कोई कीमत नहीं चाहिए, बस जो व्यक्ति मेरा घर खरीदेगा, वो जब तक हम पति-पत्नी जीवित हैं, बस तब तक हम लोगों की देखभाल करे और ये भी नहीं पता कि हमारा जीवन कब तक है, हमारे बाद वो घर हमेशा के लिए उसका, लेकिन ये सब होगा पक्की लिखा-पढ़ी के साथ, क्योंकि एक बार मैं अपने ही खून से धोखा खा चुकी हूं, अब फिर से धोखा खाना नहीं चाहती”
“और नकुल? सभी ने अपनी जिज्ञासा शांत करनी चाहीं
“उसने अपना अधिकार खो दिया” इतना बोलते हुए एक बार मनोरमा का कलेजा कांप गया “कि कहीं मैं गलत तो नहीं कर रहीं हूं” लेकिन उसने फिर झट से अपने को संभाल लिया।
सभी ने खुले मन से मनोरमा के इस फैसले का स्वागत किया कि “जो बेटा मां-बाप का भरण पोषण ना कर सके उसका माता-पिता की सम्पत्ति पर क्या अधिकार”
गांव के ही एक सज्जन दम्पत्ति ने आगे बढ़कर उनकी सेवा करने का बीड़ा उठाया और सरपंच की मदद से सारी लिखा-पढ़ी हो गई, आज मनोरमा के चेहरे पर अजीब सा संतोष था।
ये कहानी स्वरचित है
मौलिक है
क्यों होता है ऐसा, जिन बच्चों के लिए माता-पिता अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं, वही बच्चे जरूरत पड़ने पर मां-बाप की ओर निहारना भी जरूरी नहीं समझते।
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